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धर्म के नाम पर देश के बंटवारा के बाद, हमारे संविधान निर्माताओं का मानना था कि शेष भारत की राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए धर्म-आधारित पृथकतावादी दृष्टिकोण को समाप्त करना और भारतीयता के भाव को मजबूत करना आवश्यक है।
इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमारे संविधान-निर्माताओं ने 'समान नागरिक संहिता' को लागू करने का हथियार दिया। आजादी मिलने के तुरंत बाद 30 अगस्त 1947 को सरदार बल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में मूल अधिकार समिति ने समान नागरिक संहिता बनाने की संस्तुति किया, जिसे डॉ. बी. आर. अंबेडकर की अध्यक्षता वाले मसौदा समिति ने स्वीकार किया और तत्पश्चात 23 नवंबर 1948 को संविधान सभा ने अनुच्छेद 44 के अंतर्गत अंगीकृत किया।
अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान के. एम. मुन्शी* ने संविधान सभा में विचार व्यक्त करते हुए कहा कि 'जितना ही जल्दी हम जीवन के पृथक्करणीय दृष्टिकोण को भूल जाएंगे, देश के लिए उतना ही अच्छा होगा। धर्म उस परिधि तक सीमित होना चाहिए, जो नियमत: धर्म की तरह दिखता है और बाकी जीवन इस तरह से विनियमित, एकीकृत और संशोधित होना चाहिए कि हम जितनी जल्दी संभव हो, एक मजबूत और एकीकृत राष्ट्र के रूप में निखर सकें।....'
दुर्भाग्य से हमारे संविधानोत्तर नीति-निर्माता समान नागरिक संहिता को लागू करने के बजाय, इसे लगातार कुन्द करने लगे। हिन्दुओं के लिए अलग नए कानून बनाए गए, तो अंग्रेजों के समय के बनाए गए शरीयत कानून को बनाए रखा गया और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को प्रश्रय देकर मुस्लिम-लीगी अलगाववादी विचार को पुनः संरक्षित दिया जाने लगा।
जो शरीयत कानून, कभी अंग्रेजों की 'बांटों और राज करों' की नीति का हिस्सा था, उसे बंटवारे और आजादी के बाद भी मान्य किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण था। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज हम एकबार पुनः धर्म के नाम पर अलगाववादी मुहाने पर खड़े हो गए हैं। इससे बचने का एकमात्र रास्ता समान नागरिक संहिता है। इसे लागू करके ही धर्म के आधार पर नागरिकों के मध्य भेदभाव को समाप्त तथा राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत किया जा सकता है।
भारत में विद्यमान धर्म आधारित अलग-अलग व्यक्तिगत कानून, इस देश के धर्म-आधारित विभाजन के बुझ चुके आग में सुलगते धुआं की तरह हैं, जो कभी भी विस्फोटक होकर देश की एकता को खण्डित कर सकते हैं। इसलिए इन्हें समाप्त कर समान नागरिक संहिता बनाना न केवल देश की धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए, बल्कि इसकी एकता व अखण्डता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है। किन्तु दुर्भाग्य से समान नागरिक संहिता के विषय को हमेशा धार्मिक तुष्टिकरण के चश्मे से देखा जाता रहा है। पिछले 70 वर्षों के दौरान इस दिशा में ईमानदारी से कोई कदम नहीं उठाया जा सका।
समान नागरिक संहिता के निर्माण के लिए राष्ट्रीय स्वराज परिषद द्वारा 'मिशन अनुच्छेद 44 एक राष्ट्र, एक सिविल कानून' चलाया जा रहा है। इस अभियान के अंतर्गत समय-समय पर सेमिनार एवं पुस्तिकाओं के माध्यम से जनमानस को जागरूक किया जाता है और संसद् एवं राजनीतिक पार्टियों को समान नागरिक संहिता के समर्थन में आने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और सुप्रीम कोर्ट एवं अन्य कानूनी फ़ोरम पर समान नागरिक संहिता से संबंधित विषयों को उठाया जाता है।
समान नागरिक संहिता बनने से होने वाले प्रमुख सुधार एवं लाभ* -
1. देश को सैकड़ों कानूनों और इनकी जटिलता से मुक्ति मिलेगी।
2. इनमें से ज्यादातर कानून ब्रिटिश हुकूमत के दौर के बने हुए हैं। ये कानून गुलामी के प्रतीक हैं। ऐसे कानूनों से दीर्घ अवधि तक संचालित होने से हीनभावना पैदा होती है। समान नागरिक संहिता बनने से ऐसी हीनभावना से हम मुक्त हो सकेंगे।
3. कुछ अपवादों को छोड़कर 'एक पति-एक पत्नी' की अवधारणा सभी भारतीयों पर समान रूप से लागू होगा। अपवादों का लाभ सभी भारतीयों को, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान या सिख या इसाई को समान रूप से मिलेगा।
4. न्यायालय के माध्यम से विवाह-विच्छेद करने का सामान्य नियम लागू होगा। किन्तु विशेष परिस्थितियों में मौखिक तरीके से विवाह विच्छेद करने की आजादी भी होगी, जो सभी भारतीयों को, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान या सिख या इसाई को समान रूप से मिलेगा।
5. पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्री को समान अधिकार प्राप्त होगा। इसको लेकर धर्म आधारित विसंगतियां समाप्त होगा।
6. विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति और पत्नी को समान अधिकार प्राप्त होगा।
7. वसीयत, दान, धर्मजत्व, संरक्षकत्व, बंटवारा, गोद इत्यादि के संबंध में सभी भारतीयों पर समान कानून लागू होगा और धर्म-आधारित विसंगतियां समाप्त होगा।
8. देश को राष्ट्रीयता के संबंध में एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा।
9. धर्म के आधार पर अलग अलग कानून होने से पैदा होने वाली अलगाववादी मानसिकता समाप्त होगा और एक एवं अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में हम आगे बढ़ सकेंगे।
10. अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण इस देश को अनावश्यक मुकदमेबाजी में उलझना पड़ता है। समान नागरिक संहिता होने से न्यायालय का समय बचेगा और मुकदमेबाजी समाप्त होगा।
11. मूलभूत धार्मिक अधिकार जैसे पूजा/नमाज/प्रार्थना करने या ब्रत/रोजा रखने या मन्दिर/मस्जिद/चर्च/गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या संविधान प्रदत्त धार्मिक शिक्षा के अधिकार में या विवाह या निकाह का कोई भी पद्धति अपनाने में या मृत्यु के पश्चात अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी तरह का बाधा या हस्तक्षेप नहीं होगा।
* अनूप बरनवाल देशबंधु कृत पुस्तक 'समान नागरिक संहिता: चुनौतियां और समाधान' से साभार
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