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सेवा में,
मौलाना महमूद मदनी
अध्यक्ष- जमीअत उलमा-ए-हिन्द
महोदय,
29 मई, 2022 को आप द्वारा समान नागरिक संहिता के विरोध में व्यक्त किया गया विचार सामने आया है। आपने कहा है कि विवाह, तलाक/खुल्ला, विरासत जैसे विषय इस्लाम का उसी तरह हिस्सा है, जैसे नमाज, रोजा और हज है, जो कुरान एवं हदीश से संचालित होते हैं। यह पूरी तरह भ्रमित करने वाला बयान है। इसे लेकर कोई विवाद नहीं है कि नमाज, रोजा, हज जैसे विषय धार्मिक आस्था के विषय है और धार्मिक आस्था के इन विषयों का संचालन कुरान, वेद/ उपनिषद/ गीता, बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहिब जैसे धर्मग्रंथों द्वारा होता है। धार्मिक रीति-रिवाज के अनुसार विवाह सम्पन्न कराने को लेकर भी कोई विवाद नहीं है। इसकी गारण्टी खुद हमारा संविधान देता है।
धार्मिक अधिकारों की गारण्टी देने के साथ एक धर्म-निरपेक्ष देश के लिए यह भी आवश्यक है कि सिविल अधिकारों एवं अपराध न्याय को लेकर नागरिकों के मध्य धर्म के आधार पर भेदभाव न किया जाये। यही कारण है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता बनाकर लागू करना राज्य का संवैधानिक दायित्व घोषित किया है। किन्तु आप जैसे कुछ लोगों के विरोध के कारण यह देश धर्म-निरपेक्षता को लेकर दोराहे पर खड़ा रहता है।
समान नागरिक संहिता का विरोध करके आप जैसे लोग जो कुछ हासिल करना चाहते है, वह मात्र यही है कि एक मुस्लिम पति को एकसाथ चार-चार शादी करने की, 15 वर्ष के उम्र की लड़कियों से शादी करने की, मनमाना तरीके से मौखिक तलाक कहने की छूट मिलता रहे और मुस्लिम महिलाओं को विरासत में समान अधिकार न मिल पाये।
उन्नीस वर्ष पूर्व 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने जॉन बलामत्तम के मामले में जब यह कह दिया है कि विवाह, उत्तराधिकार जैसे विषय धर्म-निरपेक्ष चरित्र वाले विषय हैं, आप जैसे कुछ लोग भ्रम फैलाकर भारतीयों को भारतीय नहीं, बल्कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी के खाने में बांटे रखना चाहते हैं। इसलिए आपसे कुछ सवाल पूछा जाना ही चाहिए। उम्मीद है कि आपके पास पूछे जा रहे निम्न पन्द्रह सवालों का जवाब होगा और आप द्वारा इनका जवाब अवश्य दिया जाएगा।
1. टर्की जैसे मुस्लिम देश ने 1926 में ही विवाह, विवाह-विच्छेद, विरासत सहित सभी सिविल अधिकारों को धर्म एवं धार्मिक अधिकार से अलग करके समान नागरिक संहिता (टर्की सिविल संहिता) बनाया और लागू कर दिया, तो क्या वहां के मुसलमान कुरान या हदीश के विरुद्ध है?
2. टर्की जैसे मुस्लिम देश में एक मुस्लिम पति एक बार केवल एक शादी कर सकता है; वहां तलाक / खुल्ला के माध्यम से नहीं, बल्कि न्यायालय की डिक्री के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है; वहां बेटियों को बेटों के समान सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त है। ये सब व्यवस्था मानवता एवं सभ्य समाज के अनुकूल हैं। तो क्या टर्की ने इन व्यवस्थाओं को स्वीकार करके शरीयत के खिलाफ कार्य किया है?
3. आप जैसे लोग यह क्यों नहीं मान पाते हैं कि एक पत्नी के रहते दूसरी पत्नी रखने की छूट देना उसी तरह अमानवीय है, जैसे एक पत्नी को इस तरह की छूट नहीं दिया गया है?
4. जब पाकिस्तान जैसा मुस्लिम देश, मुस्लिम परिवार कानून, 1961 की धारा 6 के अन्तर्गत यह व्यवस्था अपनाया है कि कोई मुस्लिम पति, बिना आर्बिट्रेशन काउन्सिल की अनुमति और पहली पत्नी की सहमति के दूसरी शादी नहीं कर सकता है, तो क्या पाकिस्तान के मुसलमान कुरान या हदीश की अवज्ञा कर रहे हैं। समय के साथ यदि पाकिस्तान के मुसलमानों ने सुधार स्वीकार किया है, तो भारतीय मुसलमानों को सुधारवादी क्यों नहीं होना चाहिए?
5. आप जैसे लोग जब मुस्लिम पति को मौखिक तलाक़ की छूट देने की वकालत करते हैं, तो इसका यह संदेश जाता है कि आप लोगों को भारत के न्यायालयों पर भरोसा नहीं है। आप यह क्यों नहीं मानते हैं कि पत्नी से वैवाहिक संबंध तोड़ने के लिए तार्किक आधार बताया जाना आवश्यक होना चाहिए और इसे सिद्ध करने के लिए भारतीय न्यायालय पर भरोसा करना चाहिए?
6. देश के बाकी धर्म के लोग विवाह-विच्छेद को लेकर न्यायालय प्रक्रिया में भरोसा कर रहे हैं, ताकि अराजकता न पैदा हो, तो इसके खिलाफ आप मौखिक तरीके वाले तलाक - तलाक-ए-हसन या तलाक-ए-अहसन क्यों चाहते हैं? विवाह-विच्छेद के लिए न्यायालय की पारदर्शी व्यवस्था से आपको क्या और क्यों परेशानी हैं?
7. पाकिस्तान जैसे इस्लामिक देश में मौखिक तलाक की व्यवस्था उस तरह नहीं मान्य है, जिस तरह भारत में मुस्लिम पति द्वारा मनमाने तरीके से उपयोग किया जाता है। पाकिस्तान में यदि एक मुस्लिम पति द्वारा तलाक कहा गया है, तो इसकी सूचना आर्बिट्रेशन को देना पड़ता है। इसके तीन महीने बाद ही तलाक मान्य हो सकता है, वह भी तब जब समझौते का प्रयास विफल हो जाये। ऐसा इसलिए है, ताकि कोई पति झूठ न बोल सके कि उसने तीन महीना पहले तलाक बोल दिया है और तीन महीना प्रतीक्षा का समय पूरा हो गया है। भारत में तलाक-ए-हसन या तलाक-ए-अहसन के लिए लिखित रिकार्ड की कोई निष्पक्ष व्यवस्था नहीं है। इसके कारण इसका दुरुपयोग करने का हमेशा अवसर रहता है। भारत में मौखिक तलाक के संबंध में ऐसी पारदर्शी व्यवस्था लागू होना चाहिए या नहीं? यदि लागू होना चाहिए, तो इसके लिए आप जैसे व्यक्ति द्वारा आज तक क्या पहल किया गया है?
8. तलाक-उल-बिद्दत को लेकर भारत में निचली अदालत से लेकर हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में हजारों-हजार मुकदमें दाखिल हुए और इनके कारण न्यायालय के न जाने कितने मूल्यवान समय और धन बर्बाद हुए हैं। अन्ततः सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-उल-बिद्दत असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इनके कारण देश को हुए नुकसान की नैतिक जिम्मेदारी लेने का साहस क्या आप जैसे व्यक्ति में है, जो सिविल अधिकारों के विषय में भी पर्सनल लॉ लागू करने की वकालत करता है?
9. अभी कुछ दिन पूर्व तलाक के दूसरे तरीके तलाक-ए-हसन को भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई है। इस तरह मुस्लिम पर्सनल लॉ के कारण भारत के न्याय-प्रशासन के समक्ष पैदा हो रही समस्या की जिम्मेदारी किसे लेनी चाहिए?
10. आपने अपने बयान में खुल्ला की भी उल्लेख किया है। खुल्ला का मतलब पत्नी द्वारा लिया जाने वाला मौखिक विवाह विच्छेद है। इसके अन्तर्गत पत्नी प्रतिफल का भुगतान करके विवाह विच्छेद का प्रस्ताव कर सकती है और जब इसे पति द्वारा स्वीकार कर लिया जाये, तो विवाह-विच्छेद मान लिया जाता है। इसका अर्थ है कि यदि पत्नी पर्याप्त प्रतिफल का भुगतान नहीं कर पाती है या पति खुल्ला को नहीं स्वीकार करता है, तो पत्नी मौखिक विवाह विच्छेद नहीं कर सकती है। सवाल यह है कि खुल्ला की जो व्यवस्था पत्नी के लिए है, वैसी ही व्यवस्था पति के तलाक के लिए क्यों नहीं है? यह भेदभाव वाली व्यवस्था क्यों स्वीकरणीय है?
11. कृषि भूमि की संपत्ति के संबंध में जब धर्म-निरपेक्ष कानून लागू है और यह कानून सभी भारतीयों पर बिना किसी धर्म-आधारित भेदभाव के लागू होता है और इसको लेकर आप जैसे व्यक्ति को समस्या नहीं है, तो शेष संपत्ति की विरासत के कानून को लेकर आप भारतीयों के मध्य धर्म के नाम पर भेदभाव क्यों बनाये रखना चाहते हैं?
12. विरासत के संबंध में जब टर्की जैसे मुस्लिम देश ने बेटियों को बेटों के समान बराबरी का हक दिया है, तो भारतीय मुसलमानों पर इसे लागू करने में आपको क्यों परेशानी है?
13. सत्ताइस वर्ष पूर्व सरला मुद्गल (1995) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह द्वारा निम्न सवाल पूछा गया-
"हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानून जो विवाह और उत्तराधिकार से संबंधित है, की भी उत्पत्ति उसी तरह धार्मिक रही है, जिस तरह मुसलमान और ईसाइयों में है। हिन्दुओं के साथ सिख, बौद्ध, जैन ने भी राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए अपनी भावनाओं का त्याग किया है तो क्या दूसरे समुदाय के लोग ऐसा नहीं कर सकेंगे?''
उक्त सवाल आज भी अनुत्तरित है। उम्मीद करता हूं कि आप द्वारा उक्त सवाल का जवाब दिया जाएगा।
14. उन्नीस वर्ष पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने जॉन वलामत्तम (2003) के मामले में कहा है कि विवाह, उत्तराधिकार जैसे धर्म-निरपेक्ष चरित्र वाले विषयों को संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के अन्तर्गत गारण्टी किये गये अधिकार में नहीं शामिल किया जा सकता है। किन्तु सुप्रीम कोर्ट की इस व्यवस्था को आप द्वारा स्वीकार करने में क्यों समस्या है?
15. यदि कुरान और हदीश के प्रति आग्रह को लेकर आपकी ईमानदारी दृढ़ है, तो अपराध के संबंध में इनमें स्वीकार्य व्यवस्था को भारतीय मुसलमानों पर लागू करने की वकालत आप क्यो नहीं करते है?यदि आपने अभी तक ऐसी वकालत नहीं किया है या आज इसकी वकालत करने के लिए तैयार नहीं है, तो क्या यह दोहरापन नहीं है?
आप जैसा व्यक्ति, मुस्लिम पर्सनल लॉ की पैरवी इसलिए नहीं करता है कि नमाज, हज, रोजा जैसे धार्मिक आस्था के विषय सुरक्षित रहें, बल्कि इसलिए करता है ताकि इसकी आड़ में एक मुस्लिम पति को चार-चार बीवी रखने की 15 वर्ष उम्र की लड़कियों के साथ शादी करने की, मनमाना तरीके से तलाक कहने की छूट मिलता रहे और औरतों को विरासत में समान अधिकार न मिल पाये। ये व्यवस्थाएं न तो एक सभ्य समाज के नजरीये से स्वीकरणीय है और न ही भारत के धार्मिक ताना-बाना को सुरक्षित बनाये रखने के नजरीये से स्वीकरणीय है। किन्तु इसके बावजूद आप लोग इन्हें इसलिए बनाये रखना चाहते हैं, ताकि इस देश का ताना-बाना खराब हो जाये और ये सब धर्म की आड़ लेकर किया जाता है।
उक्त पन्द्रह सवालों का जवाब मिलने की अपेक्षा के साथ आपसे समान नागरिक संहिता पर संविधान का निर्देश मानने की अपील करता हूं, ताकि यह देश वास्तव में धर्म-निरपेक्ष देश बन सकें, जहां न केवल सभी भारतीयों की धार्मिक आजादी का अधिकार सुरक्षित रहे, बल्कि सिविल अधिकार एवं अपराध न्याय को लेकर धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो।
आभार के साथ. 08/06/2022
(अनूप देशबन्धु)
संयोजक - मिशन् अनुच्छेद 44 : एक राष्ट्र, एक सिविल कानून
लेखक - समान नागरिक संहिता : चुनौतियाँ और समाधान, तीन तलाक की मीमांसा, समान नागरिक संहिता पर विधि आयोग की नकारात्मकता
याचिकाकर्ता - यूसीसी लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दाखिल पीआईएल सं. 1259/2021
प्रतिलिपी सूचनार्थ प्रेषित
1. श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली
2. श्री अमित शाह, गृह मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली
3. श्री किरेन रिजिजू, विधि एवं न्याय मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली
4. श्री जे. पी. नड्डा, अध्यक्ष - भारतीय जनता पार्टी
5. श्रीमती सोनिया गांधी, अध्यक्षा - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
6. श्री असदुद्दीन ओवेसी, अध्यक्ष - आल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन
7. श्री राबे हसनी नदवी, अध्यक्ष - आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड