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समान नागरिक संहिता पर विधि आयोग द्वारा दोबारा सुझाव मांगने पर कांग्रेस की ओर से बयान आया है कि इसकी अभी आवश्यकता नहीं है। कांग्रेस का यह रुख कोई नया नहीं है। हिन्दू संहिता विधेयक लाने पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 14 सितम्बर, 1951 को प्रधानमंत्री नेहरू के नाम लिखे पत्र में कहा था कि यदि मौजूदा कानून अपर्याप्त और आपत्तिजनक है तो सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं बनाया जाता? जो प्रावधान बनाये जा रहे हैं, यदि वे लोगों के लिए लाभकारी हैं, तो इसे केवल एक ही समुदाय के लिए क्यों लागू किया जा रहा है। बाकी समुदाय इस लाभ से वंचित क्यों रहें? तब नेहरू ने जवाब दिया था कि अभी भारत देश समान नागरिक संहिता के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस द्वारा तब कही गई बात ‘अभी नहीं’ सत्तर वर्ष बाद आज भी पूरा नहीं हो सका है, जबकि शाहबानो बेगम (1985) से लेकर जेपी कोटिन्हो (2019) तक के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने अनगिनत बार इसे आवश्यक माना है।
कांग्रेस ने विरोध करने के लिए 21वें विधि आयोग के उस संस्तुति दिनांक 31 अगस्त 2018 का सहारा लिया है, जिसमें निष्कर्ष दिया गया है कि इस समय समान नागरिक सहिता न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। इस निष्कर्ष के पीछे आयोग का एक तर्क यह है कि संविधान सभा में इस बात को लेकर सहमति नहीं थी कि संभावित समान नागरिक संहिता क्या होगा? वस्तुत: आयोग यह समझने में विफल रहा है कि संविधान सभा पर समान नागरिक संहिता का स्वरूप तय करने का दायित्व नहीं था। उसे संविधान का निर्माण एवं शासन-प्रणाली की रूपरेखा तय करना था और देशहित एवं जनकल्याण के लिए आवश्यक नीति-निदेशक तत्त्वों का निर्धारण करना था। आयोग ने एक दूसरा तर्क यह दिया है कि व्यक्तिगत कानून अनुच्छेद 13 के अंतर्गत कानून है या नहीं, यह तमाम मामलों में, जिसमें नारसू अप्पा माली का मामला प्रमुख है, विवादित किया गया है। यहां पर आयोग ने इस तथ्य को अनदेखा कर दिया कि शायरा बानो (2017) मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट ने नारसू अप्पा माली के निर्णय (बाम्बे हाईकोर्ट-1951) की सत्यता पर संदेह व्यक्त किया है। विधि आयोग द्वारा ऐसे मामले का सहारा लेना, जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने संदेह व्यक्त किया है, समझ से परे है।
शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 44 के मृत अक्षर बन जाने पर दु:ख व्यक्त करते हुए कहा था कि कॉमन सिविल संहिता विरोधाभासी विचारों वाले कानूनों के पृथक्करणीय भाव को समाप्त कर राष्ट्रीय अखण्डता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग करेगा। शाहबानो निर्णय को उद्धरित करने के तुरन्त बाद 21वें विधि आयोग ने पैरा सं. 1.13 में टिप्पणी किया है कि ‘परन्तु यह निर्णय देश में पारिवारिक कानूनों में किए गए सुधारों के प्रयासों के इतिहास का ध्यान नहीं रखा है।’ सवाल पैदा होता है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के सन्दर्भ में विधि आयोग द्वारा इस तरह की नकारात्मक टिप्पणी कैसे किया जा सकता है? यह आयोग किन पारिवारिक कानूनों में हुए सुधारों के इतिहास की बात कर रहा है, जो कि शाहबानो मामले के तथ्यों के सन्दर्भ में प्रासंगिक रहा हो और उसे सुप्रीम कोर्ट ने ध्यान में नहीं रखा है। सुप्रीम कोर्ट से ऐसा कोई भूल हुआ है, ऐसा मान लिए जाने से भी अनुच्छेद 44 का महत्त्व समाप्त नहीं हो जाएगा। वस्तुत: अनुच्छेद 44 को संविधान में शामिल करने के बाद यह विवाद का विषय नहीं रह जाता है कि समान नागरिक संहिता आवश्यक है या नहीं। केवल विषय यह रह जाता है कि समान नागरिक संहिता का स्वरूप क्या हो, जिसे तय करने की जिम्मेदारी मोदी सरकार ने 21वें विधि आयोग को दिया था। दुर्भाग्य से यह आयोग अपनी यह संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने में विफल रहा है।
इसलिए अब मोदी सरकार के पास, जिसे जनता ने दो बार पूर्ण बहुमत के साथ चुना है, कोई विकल्प नहीं रह जाता है कि वह 22वें विधि आयोग के माध्यम से समान नागरिक संहिता के लिए किए गए वादे को पूर्ण करे।
समान नागरिक संहिता बनाने का मूल ध्येय है कि धार्मिक व्यवहार के विषय जैसे ईश्वर का स्वरूप, पूजापद्धति, व्रत, धार्मिक यात्रा, देह-अन्त्येष्टिी का तरीका, आत्मिक शान्ति का मार्ग, धार्मिक शिक्षा इत्यादि को लेकर शरीयत, गीता, बाइबिल जैसे धार्मिक पुस्तकों द्वारा संचालित होने की आजादी हो और बाकी सभी सिविल व्यवहारों को इनसे अलग करके, इन्हें एक समान व्यवस्था/कानून से विनियमित किया जाए। विश्व के तमाम आधुनिक देशों ने 19वीं शताब्दी के आरंभिक दौर में समान नागरिक संहिता स्वीकार कर लिए थे। स्विस सिविल संहिता, जर्मन सिविल संहिता, फ्रांस सिविल संहिता, पुर्तगाल सिविल संहिता, टर्की सिविल संहिता इसके उदाहरण हैं। संस्थागत एवं पैण्डेक्टवादी पद्धति पर आधारित इन संहिताओं में सिविल व्यवहार संबंधी सभी विषयों- व्यक्ति, राष्ट्रीयता, पारिवारिक, संपत्ति एवं दायित्व के कानून शामिल हैं। भारत में भी ऐसे व्यापक स्वरूप में समान नागरिक संहिता लागू होना चाहिए। जितना आवश्यक वैवाहिक-उम्र, बहुविवाह, मौखिक तलाक, गोद, वसीयत, विरासत जैसे पारिवारिक कानून को लेकर हो रहे धर्म-आधारित भेदभाव मिटाने का है, उतना ही आवश्यक संपत्ति कानूनों में मुस्लिम धर्म को मिले छूट को समाप्त करने का है (उदाहरण- संपत्ति स्थानांतरण कानून की धारा 2 एवं 129); उतना ही आवश्यक धार्मिक विन्यास (व्यक्ति का कानून) के सिद्धान्त एवं छूट को लेकर धर्म-आधारित भेदभाव समाप्त करने का है; उतना ही आवश्यक इस देश में रह रहे लोगों की राष्ट्रीयता (राष्ट्रीयता का कानून) की घोषणा करने और राष्ट्रगान के माध्यम से ‘अधिनायक’के बजाए संविधान की भावना के अनुरूप अपने ‘जननायकों’की जयकारा लगवाने का है।
कांग्रेस पार्टी को यह समझना होगा कि इस देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हो चुका है। इसका कारण कुछ और नहीं, बल्कि मुस्लिम अलगाववाद था। जब यह अपने चरम पर हो चुका था, तो किसी के नियंत्रण में कुछ भी नहीं रह गया था। यहां तक कि महात्मा गांधी के भी नियंत्रण में नहीं। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य धर्म आधारित पृथक्करणीय विचार को समाप्त कर भारतीयता के भाव को मजबूत करना है। यही हमारे संविधान निर्माताओं की भी मंशा थी। इसलिए कांग्रेस को देशहित में समान नागरिक संहिता के प्रति सकारात्मक होना होगा। यदि हम व्यापक स्वरूप में समान नागरिक संहिता (भारतीय सिविल संहिता) बनाने में सफल होते हैं, तो यह देश न केवल सही मायने में धर्मनिरपेक्ष बनेगा, बल्कि कई जटिलताओं का एकमुश्त समाधान भी होगा; न केवल यह देश गुलामी के सैकड़ों कानूनों-प्रतीकों के बोझ से मुक्त होगा, बल्कि न्यायपालिका भी कई अनावश्यक विवादों से मुक्त होगा।
- अनूप बरनवाल ‘देशबन्धु’
संयोजक - मिशन् अनुच्छेद 44: एक राष्ट्र, एक सिविल कानून