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संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसमें भारत सरकार को समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के लिए ‘भारतीय नागरिक संहिता मसौदा समिति’ का गठन करने हेतु निर्देश देने की मांग की गई है।
जनहित याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिवक्ता अनूप बरनवाल और नित्य प्रकाश तिवारी द्वारा व्यक्तिगत रूप से दायर किया गया है।
जनहित याचिका में कहा गया है कि आजादी की तिथि को भारत में एक समान आपराधिक संहिता लागू था, लेकिन समान नागरिक संहिता लागू नहीं किया जा सका था, हालांकि फ्रांस, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, पुर्तगाल, इटली, स्पेन, कनाडा, अर्जेंटीना, जापान, ग्रीस, मकाऊ, तुर्की जैसे कई आधुनिक राष्ट्रों में ने समान नागरिक संहिता स्वीकार कर लिया था।
हमारे संविधान निर्माताओं ने भी संविधान में अनुच्छेद 44 को भी अपनाया और इसके माध्यम से राज्य को यह निर्देश दिया कि वह देश के लिए समान नागरिक संहिता बनाकर लागू करे ताकि राज्य संबंधित मामले धर्मनिरपेक्ष और लिंग-निरपेक्ष कानूनी प्रावधानों से संचालित किए जा सकें, जो समग्र दृष्टिकोण एवं भाईचारे की भावना विकसित करने में सक्षम हों, न कि धर्म आधारित पृथक्करणीय कानूनों से, जो नागरिकों के बीच अलगाववादी प्रवृत्ति और अलगाववादी दृष्टिकोण पैदा करे।
जनहित याचिका में कहा गया है कि संविधान की योजना के तहत समान नागरिक संहिता एक अवधारणा है, जिसका शरीर, हालांकि अनुच्छेद 44 के अंतर्गत गठित है, लेकिन इसका दिमाग अनुच्छेद 13 में निहित है; इसकी आत्मा अनुच्छेद 14 और 15 में निहित है; और इसकी भावना अनुच्छेद 25 और 26 में निहित है। इसलिए समान नागरिक संहिता के विधायन के मुद्दे को संविधान के अनुच्छेद 13, 14, 15, 25, 26, और 44 के संयुक्त संवैधानिक आदेश के दृष्टिकोण से देखा जाना आवश्यक है, और अनुच्छेद 44 के प्रावधान को संविधान के अनुच्छेद 13, 14, 15, 25 और 26 के प्रावधान से जोड़े बिना अलग-थलग नहीं किया जा सकता है।
जनहित याचिका में आगे कहा गया है जबकि पिछले 68 वर्षों के दौरान समान नागरिक संहिता लागू करने में प्रतिवादी संख्या 1/भारत सरकार की विफलता अनुच्छेद 44 को मृत अक्षर बनाने जैसा है, तो विधि आयोग का समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को अस्वीकार करने वाला परामर्श दस्तावेज दिनांकित 31 अगस्त 2018, जिसे अब कानून मंत्री द्वारा राज्य सभा में 5 अगस्त 2021 को दिए गए बयान में मान्य किया गया है, अनुच्छेद 44 को मृत अक्षर की तरह कब्र में दफनाने जैसा है।
जनहित याचिका में संवैधानिक महत्व वाले कानून के कुल 13 सारवान प्रश्न उठाए गए हैं।
जनहित याचिका में निम्न मांग किया गया है-
1. विधि आयोग के उस परामर्श दस्तावेज दिनांकित 31 अगस्त 2018 को रद्द करने के लिए रिट जारी किया जाय, जिसमें कहा गया है कि 'अब समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ऐच्छिक', क्योंकि यह विधि आयोग के अधिकार क्षेत्र के बाहर है और ऐसा करके उस विषय को पुनः खोला एवं पुनर्जीवित किया गया है, जिसे संविधान सभा ने 23 नवंबर 1948 को अनुच्छेद 44 स्वीकार करके समाप्त कर दिया था; क्योंकि यह अनुच्छेद 13, 14, 15, 25, 26 एवं 44 के संयुक्त संवैधानिक निर्देश के खिलाफ है और अनुच्छेद 44 को मृत अक्षर की तरह कब्र में दफनाने जैसा है।
2. नारसू अप्पा माली मामले में बाम्बे हाईकोर्ट के निर्णय दिनांकित 24.07.1951 को उस सीमा तक रद्द करने के लिए रिट जारी किया जाय-
(क). जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि "अनुच्छेद 13(1) के अन्तर्गत व्यक्तिगत कानून 'लॉ इन फोर्स' की परिभाषा में नहीं आता है;
(ख). जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुच्छेद 44 ऐसे अलग-अलग संहिताओं को मान्य करता है, जो व्यक्तिगत कानून के मामले में हिन्दू व मुसलमानों पर लागू होते हैं;
(ग). जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में मान्य बहु-विवाह न्यायोचित है।
3. सिविल विषयों पर धर्म के नाम पर हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी इत्यादि के लिए भारत सरकार द्वारा अलग-अलग कानून बनाने और लागू करने की परंपरा को असंवैधानिक घोषित करने हेतु रिट जारी किया जाय, क्योंकि यह परंपरा अनुच्छेद 14 एवं 15 का उल्लंघन है और संविधान के मूलभूत सिद्धांत - धर्मनिरपेक्षता व विधि के शासन के आदर्शो के खिलाफ है;
4. मुस्लिम कानून को अपवाद बनाने वाले संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 2 के परंतुक प्रावधान और धारा 129 के प्रावधान को रद्द करने हेतु रिट जारी किया जाय;
5. ‘भारतीय नागरिक संहिता मसौदा समिति’ का गठन करने के लिए, जो अनुच्छेद 13, 14, 15, 25, 26 एवं 44 के संयुक्त संवैधानिक निर्देश के अनुपालन में नागरिकों द्वारा अपनाए जा रहे सिविल विषयों से संबंधित व्यापक स्वरूप वाले समान नागरिक संहिता (भारतीय नागरिक संहिता) का मसौदा तैयार करने हेतु एक पूर्णकालिक संस्था के रूप में कार्य करने में सक्षम हो और जो ऐसा समान नागरिक संहिता बनाये, जिससे कि धार्मिक आस्था के विषयों यथा अपनी पसंद के ईश्वर में विश्वास व्यक्त करना, किसी भी तरीके से पूजा या नमाज या प्रार्थना करना; किसी भी तरह के धार्मिक यात्रा पर जाना; किसी भी तरीके से विवाह संपन्न करना; किसी भी प्रकार का धार्मिक व्रत रखना; कोई भी धार्मिक पोशाक पहनना; किसी तरह का भोजन करना; अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार किसी भी विधा को अपनाकर मरणोपरांत दाह संस्कार करना; संविधान के अंतर्गत दिये गए धार्मिक स्थलों के प्रबंधन एवं धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार; इत्यादि में किसी तरह का हस्तक्षेप न हो, के लिए रिट जारी किया जाय और ऐसे मसौदा समिति के कार्यों के प्रगति की निगरानी किया जाय;
6. विवाह से संबंधित विषय यथा विवाह की उम्र, बहु-विवाह की परंपरा, न्यायिक अलगाव, विवाह विच्छेद, भरण-पोषण, वैवाहिक संपत्ति में अधिकार, संरक्षकता, उत्तराधिकार, वसीयती उत्तराधिकार, दान, गोद, जो अलग-अलग धर्म आधारित कानूनों से संचालित होते हैं, के संबंध में समान गाइडलाइन जारी किया जाय, जब तक कि विधायिका अनुच्छेद 13, 14, 15, 25, 26 एवं 44 के संयुक्त संवैधानिक निर्देश के अनुपालन में समान नागरिक संहिता (भारतीय सिविल संहिता) न बना ले और कार्यपालिका इसे लागू न कर ले।