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संविधान में लोकसभा और विधानसभा का कार्यकाल एकसमान होने के कारण 1967 तक इनका चुनाव साथ-साथ होते थे। यह एक स्वस्थ परंपरा थी, जिसे और मजबूत होना चाहिए था। किंतु संविधान के ही कुछ प्रावधानों के दुरुपयोग के कारण 1970 में यह स्वस्थ परंपरा टूट गया। चौथे लोकसभा को समयपूर्व भंग कर देने के कारण जहां लोकसभा का कार्यकाल राज्यों के विधानसभा के कार्यकाल से अलग हो गया, वहीं 1968-1984 के दौरान राज्यों में पैसठ बार राष्ट्रपति शासन लागू करने के कारण एकसाथ चुनाव की स्वस्थ परंपरा पूरी तरह विखर गया। 1992 में नगर-निकाय एवं ग्राम-पंचायत को संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद इनका अलग-अलग समय पर होने वाले चुनाव को लोकसभा एवं विधानसभा के साथ जोड़ दिया जाय, तो ऐसा कोई पल नहीं होता है, जब यह देश चुनावी मोड में न रहता हो।
चुनाव आयोग के आकड़ों के अनुसार लोकसभा और विधानसभा का अलग-अलग चुनाव होने पर लगभग दोगुना खर्च आता है। जबकि एक अनुमान के अनुसार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एक साथ कराने पर आने वाला खर्च, किसी एक के चुनाव में आने वाले खर्च से केवल 15-20 प्रतिशत् ज्यादा आता है। यदि 2014 में एक साथ चुनाव कराया जाता, तो लगभग 2500 करोड़ रुपये का बचत होता। बार-बार चुनाव होने के कारण एक तरफ जहां सरकारी खजाने पर अतिशय बोझ आता है, वहीं पार्टियों/प्रत्यााशियों द्वारा किए जाने वाले अतिशय चुनावी खर्च काले धन और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देते हैं। सरकारी कर्मचारियों के चुनावी ड्यूटी के कारण जहां सरकारी कामकाज बुरी तरह प्रभावित होता है, वहीं चुनाव आचार संहिता के कारण सरकारें न तो आवश्यक नीतिगत निर्णय ले पाती हैं, और न ही विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन कर पाती हैं। चुनावी रैलियों/प्रदर्शन के खर्च, कार/मोटरसाइकिल के ईधन-खर्च, इनसे होने वाले यातायात-व्यवधान समेत तमाम समस्याओं की एक लंबी फेहरिस्त है।
सवाल पैदा होता है कि आखिर यह देश इन तमाम आर्थिक एवं प्रशासनिक नुकसानों का बोझ किसकी कीमत पर उठा रहा है और क्यों उठा रहा है?
एक देश-एक चुनाव के खिलाफ मुख्यत: तीन तर्क दिए जाते हैं। पहला यह कि यह संघीय ढांचे के खिलाफ है। आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा का चुनाव 17वें लोकसभा के साथ हुआ था। इसके बावजूद इन राज्यों में संघीय ढांचा उसी तरह सुरक्षित है, जैसे अन्य राज्यों में सुरक्षित है। वस्तुत: जिन राज्यों के विधानसभा का चुनाव अलग हो रहे हैं, वह संघीय ढांचे को सुरक्षित करने के लिए नहीं हो रहे हैं, अपितु राष्ट्रपति शासन या समयपूर्व विधानसभा भंग होने के कारण हो रहे हैं। बार-बार चुनाव आचार संहिता लागू होने से राज्य के प्रशासनिक तंत्र को बार-बार चुनाव आयोग के अधीन आना पड़ता है। यह स्थिति संघीय ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। एकसाथ चुनाव होने से संघीय ढांचा कमजोर होने के बजाय और मजबूत होगा। एक देश-एक चुनाव के विरुद्ध दूसरा तर्क राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दों के गौण होने का दिया जाता है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि एकसाथ चुनाव के दौरान कहीं क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे ही गौण न हो जाए। 2019 में उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, सिक्किम में हुए एकसाथ चुनाव में राज्य-स्तरीय पार्टियां, राष्ट्रीय पार्टियों से बहुत आगे निकल गई थीं। इसलिए खतरा है, तो दोनों तरफ है। सवाल है कि 75 वर्ष की परिपक्वता हासिल करने जा रहे भारतीय लोकतंत्र के मतदाताओं की समझ पर हम क्यों संदेह करें?
तीसरा प्रमुख तर्क यह दिया जाता है कि त्रिशंकु विधानसभा/लोकसभा गठित होने या अविश्वास प्रस्ताव पारित होने या राष्ट्रपति शासन लागू होने या आपातकाल घोषित होने या कार्यकाल पूर्व विधायिका भंग करने पर इन विधायिकाओं के कार्यकाल में व्यतिक्रम होना स्वाभाविक है और यह संविधान सम्मत है। सवाल पैदा होता है कि क्या इन व्यतिक्रमों से निपटने के लिए संवैधानिक प्रावधानों में सुधार नहीं किया जा सकता है? संविधान-निर्माण के समय यदि इनकी संभावना का पता चल गया होता, तो शायद हमारे संविधान-निर्माता इनका समाधान भी देकर गए होते। आज जब यह देश चुनावी चक्रव्यूह के दलदल में फंसता जा रहा है, तो राष्ट्रहित में इनके समाधान हेतु नए उपाय तलाशने ही होंगे। हम उपजे समस्याओं को लेकर यथास्थितिवाद के शिकार नहीं हो सकते हैं।
अविश्वास प्रस्ताव के संबंध में विधि आयोग ने 170वें रिपोर्ट में दो सुझाव दिए हैं। पहला, विश्वास प्रस्ताव पारित होने या अविश्वास प्रस्ताव गिर जाने के बाद दो वर्ष तक अविश्वास प्रस्ताव लाने पर रोक हो और दूसरा, अविश्वास प्रस्ताव लाने की अनुमति तभी दिया जाए, जब इसके साथ किसी नामित व्यक्ति के पक्ष में विश्वास प्रस्ताव भी जुड़ा हो। प्रथम सुझाव में निहित सिद्धांत ग्राम प्रधान के संबंध में पहले से लागू है। दूसरा सुझाव जर्मन संविधान पर आधारित है। इस सुझाव के कारण परीक्षण सरकार का नहीं, बल्कि विपक्ष का होगा। यदि विपक्ष नामित व्यक्ति लाने में विफल है, तो सरकार अल्पमत में होने के बावजूद बना रह सकेगा। भारतीय संसदीय प्रणाली को देखते हुए विधि आयोग का यह सुझाव अस्वीकरणीय है।
सबसे जटिल समस्या त्रिशंकु विधायिका बनने या सरकार के अल्पमत में आ जाने के कारण विधायिका को भंग करने से उपजी समस्या को लेकर है। इसके प्रभावी समाधान के बिना एक देश-एक चुनाव की परिकल्पना सार्थक नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति बनने पर कि विधायिका को भंग करने के अलावा कोई विकल्प न बचा हो, विधायिका को कार्यकाल-पूर्व भंग होने से बचाने के लिए ‘उपविजेता मत मूल्यांकन प्रणाली (आर.वी.वी. प्रणाली)’ का प्रयोग करना श्रेयस्कर है। इस प्रणाली के माध्यम से दो सबसे बड़ी पार्टियों के मध्य स्पर्धा अन्य सीटों के उपविजेताओं की मूल्य आधारित गणना करके किसी एक पार्टी/गठबंधन के पक्ष में बहुमत प्राप्त किया जाता है। मध्यकाल में विधायिका को भंग होने से बचाने के लिए यह प्रणाली न केवल प्रभावशाली है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप भी है।
इसके अलावा हम नियंत्रित बहुदलीय प्रणाली, अविश्वास प्रस्ताव की समयबद्ध व्यवस्था, राष्ट्रपति शासन को सीधे सुप्रीम कोर्ट चुनौती देने की समयबद्ध व्यवस्था, मात्र राजनीतिक सुविधा के लिए कार्यकाल-पूर्व विधायिका को भंग करने पर रोक, एक व्यक्ति को दो सीटों से चुनाव लड़ने से रोक, इस्तीफा देने वाले सदस्य को पुनः उसी सीट से चुनाव लड़ने पर रोक जैसे कुछ उपाय अपनाकर हम प्राथमिक निदान करने की व्यवस्था अपना सकते हैं, ताकि त्रिशंकु विधायिका की स्थिति कम-से-कम बने और विधायिका बिना किसी व्यवधान के अपना पूरा कार्यकाल पूरा कर सके। ऐसे और तमाम उपायों को निकाला जा सकता है। किंतु अब एक देश-एक चुनाव को अव्यवहारिक और असंभव बताकर टाला नहीं जा सकता है।
(लेखक श्री अनूप बरनवाल देशबन्धु इलाहाबाद हाईकोर्ट के एड्वोकेट हैं। वह 'एक बार चुनाव - पांच साल विकास अभियान' के संयोजक हैं। इस विषय पर उनकी पुस्तक ‘एक देश-एक चुनाव: भारत में राजनीतिक सुधार की संभावनाएँ’ प्रकाशित हो चुकी है । )
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