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77 वर्ष पूर्व आज 21 अक्टूबर को यूनियन जैक उतार फेककर भारतीय ध्वज का परचम लहराया गया था और इस देश के जनमानस ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया था।
यह सब देश की आवाज़ बन चुके आजाद हिंद फौज की शक्ति के भरोसे सम्भव हुआ था, जिसने अंग्रेजी सेना के भारतीय जवानों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने की ताकत दी थी और जिसने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया था।
नेताजी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकृति भारत के जनमानस की स्वप्रेरणा से प्रस्फुटित हुई थी। इसमें अंग्रेजों की सहमति नहीं थी। अंग्रेजों की सहमति नहीं होने के कारण कहा जा सकता है कि यह वास्तविक रूप से स्वराज का प्रतीक है, जिसमें न तो अंग्रेजों का कोई एहसान हैं और न ही अंग्रेजों के पिछलग्गू होने की सोच है।
अंग्रेजों द्वारा कानूनी रूप से भारत छोड़ने की तिथि - 15 अगस्त 1947 - को हम भले ही ऐतिहासिक महत्व की तिथि माने, लेकिन यह उचित नहीं है कि स्वराज के प्रतीकीय गणना में हम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रधानमंत्री बनने की घटना को भूला दें।
यह कदापि उचित नहीं है कि हम सभी भारतीय उसी स्थान से, उसी तिथि से खुद को आगे बढ़ा हुआ माने, जहां पर अंग्रेज हमें छोड़ गए थे। यह मानसिक गुलामी की मौन स्वीकृति है।
आजादी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है गुलामी सोच से मुक्ति। यह मुक्ति किसी देश को वास्तविक रूप में सार्वभौम बनाता है। आज की तिथि गुलामी सोच से मुक्ति पाने की तिथि है।
गुलामी सोच से मुक्ति तभी सम्भव है, जब हम हर विषय को अंग्रेजों के पैमाने से आंकना बन्द कर दें। और यदि ऐसा कर पाते हैं तो कोई सवाल नही है कि हम इस देश का प्रथम प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को न माने।
राष्ट्रीय स्वराज परिषद की मान्यता है कि इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को स्वीकार किया जाय और राष्ट्रीय स्वराज परिषद इसे राजनीतिक, सामाजिक एवं कानूनी मान्यता दिलाने के लिए संकल्पित भी है।
जय स्वराज, जय सुराज।